समय की पराकष्ठा !
न गांव में और ना ही गांव के आस-पास में टेंट हुआ करते थे !
कोई भी पारिवारिक कार्यक्रम होता तो, गांव में से ही सभी सामान जुटाया जाता था !
चाहे खाटळे, बिस्तर, तकियां, खाट-पछेडे, दरी,जाजम,दूध,दही,ऊंट-गाडे़ ! बहुत ही कम चीज शहर से लानी पड़ती थी ! सामाजिकता व उधार का भाव था ! आज इनकी तो कल अपनी बारी के जिम्मेदारी का अहसास था !
बारात आती थी तो पुरा गांव पांव पर खडा़ रहता था, पुरा गांव ही एक घर था ! बुजुर्ग लोग तब तक बिना खाये ही मेहनानवाजी में खडे़ रहते थे जब तक गांव की बच्ची के फेरे खाने की रस्म पुरी नहीं हो जाती थी !
ऐसे लगता था शादी कोई शादी न होकर सामाजिक एकता का मेला हों !
समय ने करवट बदलीं रेडीमेड का जमाना आया ! टेंट आया, टेंट के साथ-साथ वेटर प्रथा भी आई !
अब बारात आने की मामुली रस्म अदायगी के बाद बारातियों व वेटर का ही आमना सामना होता हैं ... बाराती अपनी मस्ती में मस्त तो घराती अपनी मस्ती में मस्त ... तो गांव वाले अपनी में मस्ती में मस्त .. न कोई जिम्मेदारी का अहसास न सामाजिकता का भाव ...
सब जगह पैसों का बोलबाला है ....
न बाराती ... बाराती को पहचानता हैं .. और न घराती .. घराती को ...
सब अपनी मस्ती में मस्त हैं ...
आने वाला समय और भी भयानक होगा ... पर समय की गति पर किसका नियंत्रण हैं !
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