प्रगतिशील प्रेम का चिलमन !


गर्मी की भयावह दोपहर में रायबरेली से लखनऊ तक का सफ़र.. उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की एक्स्ट्रा आर्डिनरी बस.. ड्राईवर के बगल में लंबवत लंबी स्टाफ सीट.. सीट पर बैठा मैं.. पीठ पर बनियान को चीरता मेरा पसीना.. धूप में रुकी हुई बस.. लोगों के खट्टे पसीने की गंध.. दो डाकुओं का आगमन.. अच्छे वाले डाकू का मेरे बगल में आके बैठना.. मतलब कुल मिला जुला के फॉग चल रहा है..
आते ही "ओह इट्स टू वार्म"
मेरे मुंहफट मुंह से अनायास ही निकल जाता है "ग्लोबल वार्मिंग"
कन्या ने हलकी सी मुस्कराहट के साथ दर्शाया कि वह प्रगतिशील सोच की है.. (कल्पना मात्र: उसने मुंह ढका हुआ था)
प्रगतिशीलता पे असल मुहर तब लगी जब उसने मुझसे मेरा गंतव्य पुछा.. बस अपने अड्डे से निकल गयी.. आगे बाएँ मुड़कर जब उसने राजमार्ग पर अपने टायर रखे तो सूर्य की चिलचिलाती किरणों ने हम दोनों पीठ पर मानो अंगारे रख दिए.. कन्या ने अपना हैंडबैग की चेन खोली.. एक बड़ा सा काला चश्मा निकाला.. इतना बड़ा गूगल मैंने कभी नहीं देखा था.. उसके बाद कन्या ने दो घूँट पानी पिया.. फिर उसी बैग से चर्मवर्णी दस्ताने निकाले.. ये वही दस्ताने थे, जिन्हें कन्याएँ स्कूटी आदि वाहनों पर पहनती हैं.. लंबे दस्ताने एक एक करके चढ़ाये जा रहे थे.. मैं सोच रहा कि कन्याओं के लिए किसी का खून करना कितना आसान है.. चेहरा भी ढक लो, दस्ताने भी पहन लो.. सीसीटीवी और फिंगर प्रिंट की कोई समस्या नहीं.. इतने नजदीक से तिलस्मी दस्ताने वाक़ई मैंने पहली बार देखे थे, इसीलिए मैं अपलक उन्हें देखता रहा.. गनीमत थी कि कम से कम आज मैंने स्नान किया था और साफ़ कपड़ों का भी आज पहला दिन था.. कन्या के चश्मे और दस्ताने का पीठ पर आती धूप से क्या सम्बन्ध था, इस बात को समझने के लिए आइंस्टीन को फिर से जीवित होना पड़ता..रूप का नहीं पता पर अखंड विरह रंडवोँ हेतु बगल वाली सीट पर कन्या का बैठा होना ही इतनी ख़ुशी और रोमांच से भर देता है मानों कन्या बगल वाली सीट पर नहीं वरन् जीवन में ही आ गयी है.. और अगर आते ही कन्या ने आपसे ज़रा सी भी बात कर ली तो मानो मोक्ष ही मिल गया है.. अब स्वात्मा और परात्मा के मिलन को कोई नहीं रोक सकता.. मौका एक प्रतिशत ही होता है, प्रयास उसे शतांक की श्रेणी में लाते हैं.. रूप, वेशभूषा सब गौण हैं, रंडत्व सिर्फ प्रेम का भूखा होता है प्रेम के स्त्रोत का नहीं.. अतः दर्शन की चेष्टा हृदय में ही सुषुप्त है..
कन्या अभी भी अस्त-व्यस्त है.. मोबाइल अभी बैग में ही है और कन्या केवल उसकी कानखोंसनी निकाल के कानों में लगा लेती है.. चिलमन के अंदर ही अंदर इयरफोन कान में प्लग करके लेट्स द म्यूजिक प्ले हो जाता है.. मेरे समान्तर बैठी कन्या की जिंदगी चायना मोबाइल जैसी है और मैं नोकिया ग्यारह सौ सा चुपचाप बैठा हूँ.. मुझे पता है कि वह कन्या न केवल मेरे लिए अपितु मेरे इर्द-गिर्द बैठे प्रत्येक पुरुष मतदाता हेतु आकर्षण का विषय है.. परंतु लोगों का मुझसे द्वेष सिर्फ इस लिए है क्योंकि कन्या यदृच्छया मेरे बगल में आ के बैठ गयी, जबकि मैंने तो कोई डियो भी नहीं लगाया था.. हमारे एक बजे की लाइन में एक दम्पत्ति बैठी है.. जवानी में ही सिर के सभी बाल गँवा चुके पति कन्या के चश्मे को बेतहाशा खाऊ निगाहों से घूरे जा रहे हैं, वो उनकी पत्नी महोदया गर्दन उचका उचका के हमारे बीच की विभाजन रेखा की घटती बढ़ती दूरियों का मापन कर रही हैं.. जब जब यह दूरी शून्य होती है और कन्या और मेरे बदन के बीच अपरिहार्य घर्षण होता है, उनकी पलके खींच जाती हैं और पुतलियाँ आकार में बढ़ जाती हैं.. और उनकी नज़रों में मैं अभियुक्त हो जाता हूं.. कुछ प्रतियोगी नौजवानों की आँखों में तो मैं अपने लिए साक्षात मौत देख रहा हूँ.. ऐसा लग रहा मानों कन्या के बगल में बैठते ही मैं लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष बन गया हूँ.. या उनका लॉजिक कुछ ऐसा होगा.. जीवन भी सफ़र सा है.. दोनों में बहुत कुछ उभयनिष्ठ है.. जीवन के साथी को हम भ्रम में हमसफर कहते हैं.. जबकि ख़त्म तो जीवन को भी होना है और सफ़र को भी.. दोनों के ही अंत में तन्हाई और ठप्रेक है.. इसलिए यदि आपके किसी सहयात्री के बगल में कोई कन्या आ के बैठ जाए तो वह उतना ही दुखदाई होता है जितना मोहल्ले के किसी लौंडे को तगड़ी दुलहिन मिलने पर होता है.. कुल मिला जुला के मेरी किस्मत ज़माने को खटक रही है.. खटकने दो.. मैंने ठेका लिया है क्या.. शेष कुंठित सहयात्रियों का अवलोकन मैं नहीं करना चाहता.. कस्तूरी कुंडली बसै वाली बात हो जायेगी.. कन्या ने हरकत समाप्त कर दी है.. शायद सो गयी हो.. पर इतने सघन काले शीशे के अंदर कन्या की आँखें समझ में भी तो नहीं आतीं.. मुझसे क्या? हर मोड़ पर, ब्रेक लगते ही, एक्सीलेटर खींचते ही, मतलब हर उस बिंदु पर जहाँ जड़त्व या आघूर्ण उत्पन्न होता है, कन्या और मेरी न्यूनतम दूरी शून्य हो जाती है.. एक दो बार कन्याअ ने मेरे कंधे पे नींद मेंअपने सिर भी मारे.. रंडत्व की पवित्रतम प्रतिपूर्ति हो रही है.. ये सफ़र ही जीवन है.. तन्मय अभिलाषाओं की चाह नहीं.. बस ये ब्रेक लगता रहे, एक्सीलेटर चँप्ता रहे, मोड़ आते रहें.. मैं भी हलकी नींद में हूँ..
पर कन्या जाग गयी है.. बैग में कुछ हलचल हुई है.. अबकी बार पानी की बोतल है.. दर्शन की सुषुप्त अभिलाषा जागृत हो उठी है.. पर कन्या ने इस बार भी बोतल और मुंह का संपर्क चिलमन के अंदर ही अंदर बना लिया, प्यास तृप्त हुई.. पर मेरी नहीं..(छिछोरे पाठक अतिक्रमण से बचें)
बोतल अंदर.. फोन बाहर.. कन्या ने दास्ताने पहने पहने ही कैसे टच स्क्रीन चलाया.. "क्या ऐसा कोई स्क्रीन भी आता है क्या जो दस्ताने वाली उँगलियों से भी चलता है?" दर्शन की चाह पर ये सवाल भारी पड़ा.. और मैंने अतिउत्साह में कन्या से पूछ ही लिया.. "एक्सक्यूज़ में! हाउ कम यू आर ऑपरेटिंग द स्क्रीन विथ ग्लव्स?" ये अनलाइक लंठ था.. अनबिकमिंग लंठ था.. पर अंग्रेजी के दो कारण थे.. पहला- कन्या के आगमन का सीन और उसके हाथ में मँहगा वाला फोन देख के हिंदी बोलना असहज सा लगा.. दूसरा- मैं नहीं चाहता था कि मेरे सवाल को कोई तीसरा समझे.. बेशक वहां अंग्रेजी समझने वाले और भी लोग होंगे.. प्रतियोगी भाई लोगों को सीसैट भर की अंग्रेजी तो आती ही होगी.. पर जितनी खूबसूरती से अशोक लेलैंड की आवाज में अंग्रेजी घुल मिल जाती है, शायद ही हिंदी में वो क्वालिटी हो..
मेरी सारी प्रमेय को कन्या ने चोखा साबित करते हुए अपना मुख मेरे कान के पास लाके कहा "आँय??" और मुझे भक मार गया.. सँभलते हुए मैंने उससे पूछा, "ये फोन कपड़वा से भी चलता है क्या".. तभी कन्या ने अपनी दस्तानेयुक्त तर्जनी ऊँगली मुझे दिखाई.. मेरे रंडत्व ने जो देखा वो था- गोरा बदन, स्पार्कल वाली सुनहरी नेलपॉलिश,बढ़े हुए नाख़ून जिन्हें बड़ी नज़ाकत से बेरंग छोड़ा गया था.. और मैंने जो देखा वो था- बड़ी ख़ूबसूरती से कन्या ने अपनी तर्जनी ऊँगली के शीर्ष पर एक सेमी के व्यास में दस्ताने को फाड़ा हुआ था.. ये एकमात्र ऐसी जगह थी जहाँ से कन्या सीधे हवा के संपर्क में थी.. हम दोनों हँस पड़े.. हमारे चेहरों पर लंबी सी मुस्कान खींच आई.. और आस पड़ोस में ऐसा मातम छा गया मानो कन्या में मुझे आईलाभ्यू बोल दिया हो.. 😍😋😊

No comments

Powered by Blogger.