मैंने दहेज़ नहीं माँगा साहब !




मैंने दहेज़ नहीं माँगा”
साहब मैं थाने नहीं आउंगा,
अपने इस घर से कहीं नहीं जाउंगा,

माना पत्नी से थोड़ा मन-मुटाव था,
सोच में अन्तर और विचारों में खिंचाव था,
पर यकीन मानिए साहब, “मैंने दहेज़ नहीं माँगा”

मानता हूँ कानून आज पत्नी के पास है,
महिलाओं का समाज में हो रहा विकास है।
चाहत मेरी भी बस ये थी कि माँ बाप का सम्मान हो,
उन्हें भी समझे माता पिता, न कभी उनका अपमान हो।
पर अब क्या फायदा, जब टूट ही गया हर रिश्ते का धागा,
यकीन मानिए साहब, “मैंने दहेज़ नहीं माँगा”

परिवार के साथ रहना इसे पसंन्द नहीं है,
कहती यहाँ कोई रस, कोई आनन्द नही है,
मुझे ले चलो इस घर से दूर, किसी किराए के आशियाने में,
कुछ नहीं रखा माँ बाप पर प्यार बरसाने में,
हाँ छोड़ दो, छोड़ दो इस माँ बाप के प्यार को,
नहीं माने तो याद रखोगे मेरी मार को,

फिर शुरू हुआ वाद विवाद माँ बाप से अलग होने का,
शायद समय आ गया था, चैन और सुकून खोने का,
एक दिन साफ़ मैंने पत्नी को मना कर दिया,
न रहूँगा माँ बाप के बिना ये उसके दिमाग में भर दिया।
बस मुझसे लड़कर मोहतरमा मायके जा पहुंची,
2 दिन बाद ही पत्नी के घर से मुझे धमकी आ पहुंची,

माँ बाप से हो जा अलग, नहीं सबक सीखा देंगे ,
क्या होता है दहेज़ कानून तुझे इसका असर दिखा देगें।
परिणाम जानते हुए भी हर धमकी को गले में टांगा,
यकींन माँनिये साहब, “मैंने दहेज़ नहीं माँगा”

जो कहा था बीवी ने, आखिरकार वो कर दिखाया,
झगड़ा किसी और बात पर था, पर उसने दहेज़ का नाटक रचाया।
बस पुलिस थाने से एक दिन मुझे फ़ोन आया,
क्यों बे, पत्नी से दहेज़ मांगता है, ये कह के मुझे धमकाया।
माता पिता भाई बहिन जीजा सभी के रिपोर्ट में नाम थे,
घर में सब हैरान, सब परेशान थे,

अब अकेले बैठ कर सोचता हूँ, वो क्यों ज़िन्दगी में आई थी,
मैंने भी तो उसके प्रति हर ज़िम्मेदारी निभाई थी।
आखिरकार तमका मिला हमें दहेज़ लोभी होने का,
कोई फायदा न हुआ मीठे मीठे सपने संजोने का।
बुलाने पर थाने आया हूँ, छुपकर कहीं नहीं भागा,
लेकिन यकींन मानिए साहब, “मैंने दहेज़ नहीं माँगा”

झूठे दहेज के मुकदमों के कारण,
पुरुष के दर्द से ओतप्रोत एक मार्मिक कृति…

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